भांजी की जिद पर फ्रॉक में ली गई तस्वीर को
जैसे ही मैने व्हाट्सअप पर अपनी नई प्रोफाइल पिक बनाई, तड़ातड़ मैसेज आने
शुरु हो गए। लड़कियों ने जहां मेरे इस नये लुक की तारीफ की। वहीं लड़कों ने
तारीफ के साथ ‘दिल्ली की हवा’ लगने का ताना मारा। शुरुआती झुंझलाहट के बाद
मुझे इस ‘खेल’ में मजा आने लगा। ‘खेल’ शब्द इसलिए क्योंकि इसी बहाने पुरुष
स्वभाव को जानने का नजदीक से मुझे मौका मिला।
हमारे समाज में स्त्रियों के संस्कार को
कपड़ों से जोड़ा जाता है। आज जब किसी लड़की के साथ बदसलूकी या दुष्कर्म की
घटना होती है तो पुरुष समाज चीख-चीखकर इसके लिए स्त्रियों के कपड़ों को
जिम्मेदार बताता है। हाल की कुछ घटनाओं में तो उच्च पदों पर बैठे भद्र
पुरुषों ने महिलाओं को सीधे-सीधे अपनी हद में रहने की सलाह दे डाली और
महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाओं का कारण उनके कपड़ों को ठहरा दिया।
कुछ महिलाओं ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। ये वो लोग हैं जो भारतीय
संस्कृति की दुहाई देते नहीं थकते। लेकिन खुद इन्होंने कभी कुर्ता-धोती
पहनने की जहमत तक नहीं उठाई। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि पुरुषों के लिए भारतीय
संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। संस्कृति की रक्षा का सारा दारोमदार बेचारी
स्त्री ने उठा रखा है।
हमारे संस्कारी देश में हर साल महिलाओं के
प्रति बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी होती जा रही है। वर्ष 2011 में देशभर
में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए। जबकि 2010 में 5,484 मामले ही
दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7
प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते
हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत
होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी
अस्मत गंवा देती हैं। लेकिन आंकड़ों की कहानी पूरी सच्चाई बयां नहीं करती।
बहुत सारे मामले ऐसे हैं जिनकी रिपोर्ट ही नहीं हो पाती।
इन मामलों में भी क्या महिलाओं के कपड़े ही
दोषी होते हैं? क्या पुरुषों की कोई नैतिक या सामाजिक जिम्मेदारी नहीं
होती? वही पुरुष जब अपनी बहन-बेटियों को छोटे कपड़ों में देखता है तो उसकी
कामुकता क्यों नहीं जगती? जबकि पराई स्त्रियों को देखते ही उसके अंदर का
पशु जाग जाता है और जब 6 महीने की बच्ची या 80 साल की वृद्धा के साथ
दुष्कर्म की घटनायें होती हैं तब कौन सा कारण होता है जो पुरुषों को
कुकृत्य करने से नहीं रोक पाता।
भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले ये
पुरुष कभी वैदिक काल की ओर नजर क्यों नहीं उठाते? पुराने समय में स्त्रियां
जितनी मुखर अपने अधिकारों को लेकर थीं उतनी ही स्वतंत्रता उन्होंने अपने
वस्त्रों के लिए भी रखी थी। कंचुकी और एकल वस्त्र में वो विहार करती थीं।
ईसा से तीन सदी पहले मौर्य और शुंग राजवंश के वक्त की प्रस्तर प्रतिमाएं ये
बताती हैं कि तब स्त्री और पुरुष आयताकार कपड़े का एक टुकड़ा शरीर के
निचले हिस्से में और एक ऊपरी हिस्से में पहना करते थे। गुप्त राजवंश के
दौरान की भी छवियां हैं जिनसे पता चलता है कि सातवीं और आठवीं सदी में
स्त्रियों के कमर से ऊपर के कपड़े टंके हुए होते थे और उनका वक्षस्थल एक
पट्टी से ढका होता था। कमर से नीचे के कपड़ों का चयन भी उनका अपना होता
था। उस वक्त तो किसी पुरुष ने उनके वस्त्रों पर उंगलियां नहीं उठाई। देश भर
के मंदिरों में जो मूर्तियां बनी हैं वो स्त्रियों के उस काल की आधुनिक
वेशभूषा को बखूबी बयां करती है। उन दिनों जितनी स्वतंत्रता एक स्त्री को
मिलती थी उतनी स्वतंत्रता तो आज के वक्त में नारियों ने अभी तक देखी ही
नहीं है। अभी तो उसने पग ही धरे हैं और दुनिया में हंगामा मचने लगा है।
सच्चाई तो ये है कि हम चाहे लाख आधुनिक
बनने का स्वांग भरें। हमारे मन के अंदर दूषित विचार आज तक जस-के-तस हैं।
तभी तो लिवाईस की जींस और स्पाईकर की शर्ट पहनने के बाद भी मर्दों की सोच
पुरुषवादी दालान से आगे नहीं बढ़ पाती। अगर ऐसा न होता तो पुरुषों को किसी
स्त्री की पहचान और उसके व्यक्तित्व को आंकने के लिए ड्रेस का सहारा न लेना
पड़ता और न ही अपने कुत्सित विचारों को ढ़ंकने के लिए उनके कपड़ों को दोषी
ठहराने की नौबत आती।
वक्त बदलाव मांगता है और ये वक्त है
पुरुषों के खुद के अंदर झांककर अपनी सामर्थ्य और अपनी आत्मशक्ति को खोजने
की। किसी के कपड़े या कोई बाहरी तत्व इतना प्रभावी कैसे हो सकता है कि वो
पुरुषों की सारी सोच और विचारों को खत्म कर दे? ये वो देश है जहां भगवान्
राम जैसे मर्यादा पुरुष ने जन्म लिया था। उनकी वो मर्यादा पुरुषों की आत्मा
में भी जागे और वो अपने दमित और कुंठित सोच से ऊपर उठें। यही समस्त नारी
जगत की कामना है।
‘बोल बिहार’ के लिए प्रीति सिंह
Kapdhe se koi problam nahi hai lekin aajkal girls to kapdhe hi utar kar apna sareer dikhati hai
जवाब देंहटाएं